अंकिता शाही: उदासी को मात देती कलम।

अंकिता शाही योरकोट पर हिंदी और हिन्दुस्तानी भाषा में कठिन से कठिन बात सरल शब्दों में कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हें जानने का प्रयास किया है हमारे लेखक Anubhav Bajpai Chashm ने।

Anubhav Bajpai Chashm
YourQuote Stories

--

Ankita Shahi

नमस्ते! अंकिता जी, सबसे पहले तो आपका आभार अपना समय देने के लिए। अभी अपना एक छोटा सा परिचय दें ताकि सभी आपको जान सकें।

बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में रहती हूँ। यहीं जन्मी, बचपन में 10 साल गाँव में बिताए हैं । दोबारा फिर से 9th से स्नाकोत्तर की पढ़ाई यहीं हुई। फ़िलहाल एक प्राइवेट विद्यालय में बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही हूँ (गंभीरता से नहीं लें)। किताबें हर प्रकार की पसंद हैं, कोशिश होती है पढ़ पाऊं। टेलीविज़न से बहुत दूर हूँ, बोलती बहुत बहुत ज़्यादा हूँ, सुनती भी हूँ। लोग जो क़रीब हैं उन्हें पता है कि मैं मौक़ा नहीं देती इसलिए वो चुप करवा के अपनी बात रख लेते हैं। स्कूल में इमेज एक गंभीर लड़की की थी, यहाँ तक कि पर्दे के पीछे बदमाशी में हाथ रहता था पर मेरी छवि की वजह से पकड़ी नहीं गयी कभी। खिलंदड़पन स्वभाव में है और उदास होना बिल्कुल पसंद नहीं । ख़ुद ही ख़ुद को सांत्वना देकर मुस्कुरा लेना मतलब कमाल की अनुभूति(feeling) होती है वो। लिखने के अलावा लोगों के कान से खून अपनी आवाज़ से निकाल देना, बेवजह की चीज़ें करना जो लोगों को रास नहीं आए घरेलू काम-काज़ और फेसबुक पर एक दिन में 50 पोस्ट करके सबको परेशान करना बहुत पसंद है। शब्द हल्के पसन्द हैं पर बातें घुमा के करती हूँ और लिखने में भी कुछ ऐसा ही है। कहावतों से बड़ा प्रेम है वो भी अपनी मातृभाषा में बोली जाने वाली; मतलब उलझी हुई हूँ और लोगों को उलझा देना पसन्द है ।
स्वभाव से वाचाल के अलावा भावुक और संवेदनशील बाक़ियों से थोड़ी ज़्यादा हूँ ऐसा लगता है क्योंकि अभिनय करते हुए भी कोई रोए रो पड़ती हूँ, कहानियाँ पढ़ते हुए किरदार में उतर जाना और फिर किस्से को ख़ुद पर बीतता हुआ महसूस करना ये भी अजीब आदत है मेरी।भगवद्गीता पढ़ना बहुत पसंद है जब भी मोहमाया का अनुपात बढ़ जाता है ज़िन्दगी में, तो यही पुस्तक सन्तुलन बनाने में मदद करती है। गुस्सैल थोड़ी ज़्यादा हूँ क्योंकि पीछे बात करना नहीं आता इसलिए लोग टिकते कम हैं बाक़ी गुस्से के अलावा कोई अनुभूति बेकार वाली नहीं आयी; मतलब दुनिया का कोई भी इंसान हो भले ही व्यक्तिगत रूप से मेरी लड़ाई हो चुकी हो पर ना तो मुझे वो ग़लत लगता है ना ही मुझे कोई दिक्क़त होती है। उसकी अपनी सोच मेरी अपनी ;सुखी रहने का बेहतरीन फंडा है ये “बीती ताहि बिसार दे”।
ये दरसअल आत्म प्रशंसा करने जैसा है पर आपका सवाल ही आत्मप्रेमी बना रहा क्या कर सकती हूँ ?चीज़ें जो हो रही होती हैं आसपास थोड़ा जल्दी उनमें ढल जाती हूँ, ग्रामीण जीवन बहुत पसंद है शोर-शराबा भीड़-भाड़ बहुत ज़्यादा लोग ये सब रास नहीं आते। हाँ, पर हमारा संयुक्त परिवार है और ऐसा परिवार पसन्द है। बदलने का और ढल जाने का ऐसा है कि आजकल तहज़ीब और तमीज़ को परे रख आती हूँ जब सामने वाला बदतमीज़ हो। पहले प्यार की गोली खा रखी थी अब यथार्थ को निगलने की कोशिश की जा रही है। लापरवाह भी हूँ ज़रा सी अल्हड़ क़िस्म की हमेशा लुढ़कती रहती हूँ कई किस्से है मेरे गिरने-पड़ने के(2 दिन पहले भी सीढ़ियों से लुढ़की हूँ अभी ज़ख्म भी ताज़ा है)पाबन्दियों में पली-पढ़ी हूँ इसलिए दुनिया घूमने की बड़ी इच्छा है। दिवास्वप्न भी ख़ूब देखती हूँ; एक दिलचस्प सा सपना ये है कि किसी पहाड़ की चोटी पर बैठकर कहानियाँ लिखूँ , रात को सड़कों पर घूमते हुए महसूस करूँ वो तन्हापन और स्ट्रीटबल्ब के नीचे बैठकर उन भावनाओं से पन्ने रंग दूँ। बहुत बोलने से कभी कभी ख़ुद भी ऊब जाती हूँ और तब मैं एक अलग अंकिता होती हूँ चुपचाप सी अपने ही ख़यालों में। कुल मिलाकर बात बस इतनी है कि मैं सुलझे हुए धागों से बुना उलझन का लबादा हूँ। ख़ुद को समझने की कोशिश लगातार जारी है औऱ दुनिया को भी।
जब सब कह दिया तो चाय कैसे छोड़ दूँ चाय मेरे लिए मोहब्बत है, प्रेरणा, प्रोत्साहन, महबूबा (मेरे लिए महबूब माना जाए)। चाय एक ऐसी एकलौती चीज़ जिसे मैं कभी ना नहीं कह सकती उसका हर रूप पसन्द है ग्रीन टी, ब्लैक टी, सुगर फ्री, दूध वाली, चाय का बस चाय होना ज़रूरी है। दूसरी चीज़ जिस से मैं चिपकी हुई पाई जाती हूँ वो है मेरा फोन; दिनभर कुछ ना कुछ चलता है इधर लिखना-पढ़ना बातें-वातें। हाँ, जब लोगों के साथ होती हूँ तो ये आशिक़ी भूलनी पड़ती है। बहरहाल मैं बोलती हूँ बहुत कुछ पर वो नहीं जो चाहती हूँ मैं बहुत सी बातें करके भी ख़ामोश हूँ!

छोटा सा परिचय बहुत बड़ा हो गया पर अब आप बोलती ख़ूब हैं तो मैं रोक भी नहीं सकता क्योंकि मैं बहुत कम बोलता हूँ। आप वो नही हैं जो चाहती हैं पर आप क्या होना चाहती हैं?

ये फिर भी शायद बहुत छोटा है! कम बोलने वाले हैं आप तभी मैं बहुत ज़्यादा बोल रही हूँ वरना मेरे साथ लोगों को ये मौक़ा छीनना पड़ता है। अब बात ये है कि मैं क्या होना चाहती हूँ? और मैं क्या हूँ? मैंने पहले ही साफ कर दिया है कि मैं बहुत ज़्यादा उलझी हुई हूँ ख़ुद उलझती हूँ ख़ुद सुलझती हूँ, और इसलिए ये लड़ाई ख़ुद से चलती ही रहती है कि मैं क्या हूँ, मैं क्या थी, और मुझे क्या होना चाहिए ? चलिए इस उलझन को सुलझाने की कोशिश करती हूँ आपके लिए भी और अपने लिए भी। निदा फाज़ली साहब ने कहा:-

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,

जिसको भी देखना हो कई बार देखना…

ये मैं हमेशा ख़ुद के लिए कहती हूँ जो हूँ नज़र वही आती हूँ लेकिन एक हिस्सा ऐसा है जिसे मैंने छुपा के रखा है दुनिया से सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे लगता है उस हिस्से को पढ़ने का हुनर दुनिया नहीं जानती। मैं साधारण हूँ और असाधारण होते हुए भी साधारण बने रहना चाहती हूँ ;बस इतनी सी बात है। और हाँ आत्मप्रशंसा के चक्कर में मैंने आपका धन्यवाद ज्ञापन नहीं किया बहुत-बहुत आभार आपका मुझे इस लायक समझने के लिए और अपना बेशकीमती समय मुझ पर खर्चने के लिए ।

ख़ैर! ये बताईए कि लिखना कब, क्यों और कैसे शुरू किया?

अम्म्म, लिखना कब यही कोई 10–12 साल की थी तो यूँ ही एक कविता लिख दी। वही साल 2005 या 06 में एक मैगज़ीन प्रकाशित होनी शुरू हुई थी हिंदी की ‘अहा ज़िन्दगी’। तब जब पढ़ना शुरू किया उसकी भाषा शैली ने बहुत प्रभावित किया और हिंदी से प्रेम करना भी सिखा दिया। दरअसल घर में बहुत सारे पत्र-पत्रिकाएं आते रहे हैं। मेरे चाचा जी जिन्हें मैं दादा कहती हूँ, उन्होंने परिचय करवाया है इन चीज़ों से और आदत लगवाई है। टेलीविज़न नहीं था घर में, पर रात को बीबीसी सुन के उस न्यूज़ को समझ के अपने नोटबुक में लिखना और जितनी भी पत्रिकाएं आयी होती थी उनको पढ़ जाना अनिवार्य था। दादा घर में आयें तो हम पढ़ते हुए पाये जाने चाहिए थे भले ही वो कॉमिक्स ही क्यों ना हो। किताबें सबसे अच्छी मित्र हैं ये समझा दिया गया था।
ये तो कब था, अब क्यों और कैसे की बात करते हैं:- दरअसल मैं चीज़ों को बहुत ज़्यादा महसूस करती हूँ भावुक होने की वज़ह से और यही कारण रहा लिखने का; जो कह नहीं पाई उसको पन्नों पर उतार दिया। कैसे का ये क़िस्सा है कि किसी पत्रिका में बाल कविता भेजनी थी तुरन्त ही कोशिश की तो बन गयी। भेज दी, और कलम चलने लगी।

ये बढ़िया है आपके दादा आपको कॉमिक्स पढ़ने देते थे। अच्छा लिखना तो शुरू हो ही गया था २००५-०६ में, पर लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती रही?

हाँ, शुरू किया और फिर थोड़ी बहुत ये कोशिश जारी रही लेकिन ये समझ बहुत देर से आयी कि मैं लिख सकती हूँ। मतलब गंभीरता से लिया नहीं था इस बात को, घर में दादा लिखते थे मेरे “पिता जी” भी लिखा करते थे ये भी सुना है। दादी जी की सारी किताबें और लिखी हुई रचनाएँ विरासत में मिली थी। प्रेरणा असल वहीं से आयी थी कि मैं भी कर सकती हूँ। बाक़ी शब्द जब उफ़नते हैं तो उन्हें पन्नों पर आने से नहीं रोका जा सकता, कह सकते हैं कि ये ईश्वरीय देन है क्योंकि बहुत बार कोशिश करके भी कुछ नहीं लिख पाती हूँ।

अरे वाह, विरासत में साहित्य मिल जाए तो फिर कहने ही क्या! ऐसे कौन — कौन से रचनाकार रहे जिन्हें आपने हमेशा पढ़ा और प्रभावित हुईं?

किताबों की भूख हमेशा से थी, है और रहेगी। कहने का तात्पर्य है कि हमें जो भी मिलता गया हम पढ़ते गए। गाँव का सानिध्य छूटा तो पुस्तकें भी छूट सी गयी थी। दादी जी के खजाने में जितना था और जितना मैं पढ़ सकती थी धार्मिक, पौराणिक, पत्र-पत्रिकाएं, उपन्यास सब पढ़ लिया तब किसी ख़ास को अपनी रुचि समझना या क्या पढ़ें क्या ना पढ़ें ये समझना आसान नहीं था। तब गीताप्रेस से एक पत्रिका निकलती थी ‘कल्याण’ शायद अब भी निकलती है। उसका बड़ा गहरा योगदान है मुझे वो बनाने में जिस से आप रूबरू हो रहे हैं और एक अमिट प्रभाव भी। पुस्तकें मित्र कैसे होती हैं ये उस पत्रिका ने सिखाया है। मुझे चीज़ें जो करनी चाहिए या जो नहीं करनी चाहिए यहाँ तक संस्कार और कई रोज़मर्रा की आदतें जैसे सूर्य-दर्शन, कर-दर्शन, ये सब वहीं से सीखा है। एक कहानी पढ़ी थी ‘भामती’ की मैं उनकी तरह होना चाहती थी। इसके अलावा ‘प्रेमचन्द’ की रचनाएं बहुत प्रभावी साबित हुई मेरे भावनात्मक मन के लिए। बार-बार पढ़ने वाला प्रेम प्रेमचंद, टैगोर, अज्ञेय इत्यादि हैं। एक ही किताब 10 बार पढ़ती हूँ और हर बार वो नई लगती है। स्कूल के एक शिक्षक ने जन्मदिन पर तोहफ़ा दिया था स्टीफ़ेन आर कवी की लिखी हुई ‘अति प्रभावकारी लोगों की सात आदतें’ वो किताब मेरी पसन्दीदा है। उसकी हर पंक्ति पर एक-एक किताब लिखी जा सकती है ऐसा मुझे लगता है। उदाहरण आप ख़ुद देख लीजिए:
‘हमारे साथ जो होता है, वह हमें उतना दुःख नहीं पहुँचाता जितना कि उस पर हमारी प्रतिक्रिया। ज़ाहिर है घटनाएं हमें शारीरिक या आर्थिक रूप से दुःख पहुँचा सकती हैं और हमारे जीवन को कष्टकारी बना सकती हैं। परन्तु यह ज़रूरी नहीं है कि इससे हमारे चरित्र या मूलभूत पहचान को ज़रा भी चोट पहुँचे। हमारे सबसे मुश्किल अनुभव दरअसल वे उपकरण हैं जो हमारे चरित्र को ढालते हैं हमारी आंतरिक शक्तियों का विकास करते हैं, हमें भविष्य में मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने की स्वतंत्रता देते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेर
क शक्ति देते हैं।’

ये प्रभावित होने वाली लिस्ट ज़रा लम्बी है इनमें से एक “मधुशाला” भी है इसकी इन पंक्तियों में एक कवि के पूरे जीवन का सार है-
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साक़ी बनकर आया है
भरकर कविता का प्याला
कभी न कण भर खाली होए
लाख पीयें ,दो लाख पीयें!
पाठकगण है पीने वाले
पुस्तक मेरी मधुशाला।

कितना बताऊँ जितना बताते जाऊँगी ये लिस्ट बढ़ती जाएगी। हाँ, विवेकानंद जी की चर्चा के बिना ये जवाब अधूरा रह जाएगा बिना कुछ कहें उनकी पंक्तियों से ही सार समझा देती हूँ।

नयन पथराए, हृदय हो शून्य अपना
छले मैत्री, प्यार हो विश्वासघाती
भाग्य भी सौ आपदाएँ लाद दे सिर

और बीहड़ तम तुम्हारा रोक ले पथ
प्रकृति की त्यौरियां चढ़े
जैसे अभी वह कुचल देगी,
किंतु मेरे आत्मन हे, दिव्य हो तुम,
नहीं दायें और बायें तनिक देखो,
दृष्टि हो गन्तव्य पर ही।

सब अव्वल दर्जे के कलमकार। वैसे ये योरकोट कहाँ मिल गया आपको?

हमारे शहर के एक रचनाकार हैं अभिजीत, मिलाया तो फेसबुक ने था तब जब मैं इतनी ढीठ नहीं हुआ करती थी, मेरा लेखन परखना उन्हें बख़ूबी आता है। उन्होंने ही सुझाव दिया था योरकोट डाऊनलोड करने का। उसके पहले मैंने देखा था उधर लोगों को पर रुचि नहीं दिखायी थी।

रुचि से याद आया लेखन के इतर और क्या-क्या शौक़ हैं आपके?

रचनात्मक चीज़ें पसन्द आती हैं, बाग़वानी का शौक है, खाना बनाना, नई-नई चीज़ें सीखना, कबाड़ से जुगाड़ जैसे कि कोला की बोतल में पौधा लगाना या उसका पेन-स्टैंड बना देना। ये सब ख़ूब किया करती थी। इसके अलावा गाने का बहुत शौक़ है यदा-कदा लोगों को पकाती भी हूँ, संगीत सीखा नहीं है सीखने की इच्छा है।

प्रतिभा कूट-कूटकर भरी है आप में। कभी कुछ पढ़कर लगा हो कि ये मैंने क्यों नहीं लिखा?

अरे शौक़ है प्रतिभा नहीं। हाँ, तो ऐसा है कि मैं बहुत डूब के पढ़ती हूँ कुछ भी। पहले भी कहा कि किरदारों से ख़ुद को जोड़ लेती हूँ। ये कहना तो छोटा मुँह बड़ी बात होगी पर गुलज़ार साहब की जो नज़्में हैं वो भीतर तक उतरती हैं और उन्हें पढ़कर कई दफ़ा महसूस होता है कि ये मुझे लिखना चाहिए था जबकि मैं जानती हूँ मैं लिख नहीं सकती, लेकिन भावनाएं जुड़ जाती हैं तो रश्क हो जाना भी लाज़िमी है। योरकोट पर एक लेखक हैं मेरे पसंदीदा में से एक पीयूष मिश्रा उनका लिखा जितनी बार पढ़ती हूँ चाहे वो जो भी हो हर बार यही लगता है कि ये मुझे लिखना चाहिए था। योरकोट पर सबसे पहले उन्हें पढ़ा था हम ने।

पीयूष भैया हैं ही कमाल। आप किरदार में डूब जाती हैं तो कभी कोई ऐसा किरदार जो जीने का मन किया हो या आपसे बहुत मेल खाता हो ।

जी ऐसा बहुत बार होता है, जब लगता है कि इस किरदार को जिया जाए, प्रेमचंद के कहानी की नायिकाएँ पहले आती हैं इनमें। चूंकि मैं उलझी हुई हूँ इसलिए कितने ही ऐसे किरदार हैं जिन्हें महसूस करो तो लगता है मेरी बात हो रही है मतलब थोड़ा-थोड़ा हिस्सा।’मुझमें सबका किस्सा है जो लोग मिले हैं कभी ना कभी मैं उन सबका थोड़ा हिस्सा हूँ’ मुझसे मेल खाते किरदारों की बात की जाए तो एक किस्सा पढ़ा था उषा प्रियम्वदा जी का लिखा ‘आश्रिता’ बहुत हद तक ख़ुद जैसा लगा। अभी हाल में ही ‘चार अधूरी बातें’ पढ़ी है अभिलेख द्विवेदी जी की उसका एक किरदार संदली दिल के बेहद क़रीब और अपने सा लगा। चूंकि बचपन की बातें मन से कभी नहीं निकलती जैसा कि मैंने पहले कहा है एक कहानी पढ़ी थी ‘भामती’ की; भामती जो एक धनाढ्य परिवार की विदुषी महिला थी और जिनकी शादी एक विद्वान परन्तु निर्धन ब्राह्मण से कर दी जाती है और कैसे वो अपनी सूझबूझ से सबकुछ ठीक कर देती हैं। बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था मन पर जीना चाहती हूँ मैं उन्हें। उनसे ही सीखा है कि परिस्थितियों से भागते नहीं उन्हें अपने अनुकूल बना लेते हैं।

जी बिल्कुल जो मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए तैयार रहता है परिस्थितियाँ उसी के लिए अनुकूल होती हैं। कभी आप पर कोई किताब लिखी जाए और उस पर मूवी बने तो उसका क्या नाम होगा और क्यों ?

अरे बाप रे! नहीं नहीं मतलब ऐसा सवाल, क्या है कि ऐसा कुछ किया ही नहीं है अभी तक जिसकी वज़ह से मूवी बने या फिर किताब ही लिखी जाए! मतलब क्यों लिखी जाएगी मैं हूँ कौन? एक छोटे से शहर की आम सी लड़की जिसे कोई जानता ही नहीं। लेकिन पूछा है तो बचा नहीं जा सकता इस सवाल से। मेरे हिसाब से चाहे वो कोई किताब हो या मूवी हो जो मुझ पर लिखी जाए उसका शीर्षक होना चाहिए ‘क़फ़स’ और क्यों का जवाब ये कि इसका अर्थ है पिंजरा, मैं ख़ुद को पिंजरे में क़ैद पक्षी से ज़्यादा कुछ नहीं समझती।

पिंजरे में क़ैद पक्षी जब उड़ान भरता है तो सबको पीछे छोड़ देता है। ख़ैर! योरकोट की सबसे अच्छी बात क्या लगती है?

जी, सच कहा वो उड़ान ही अलग होती है। योरकोट कि सबसे अच्छी बात ये कि इसकी वज़ह से वो भी लिखने लगे हैं जिन्हें ख़ुद पर भी यक़ीन नहीं था वो कोट्स भी लिख सकते हैं मेरे ख़ुद के कई दोस्त हैं ऐसे। दूसरी बात ये कि रेगुलरिटी बनी रहती है लिखने की, मैं ख़ुद की बात करूँ तो पिछले 6 महीने में जितना लिखा उतना पहले नहीं लिखा। आख़िरी बात ये की अच्छे लोगों से जुड़ने का मौक़ा, उन्हें पढ़ने का मौका और तो और ख़ूब सीखने को मिलता है।

पढ़ने से याद आया यौरकोट पर आपके पसंदीदा लेखक कौन-कौन से हैं?

ये लिस्ट बहुत ज़्यादा लम्बी है बहुत से लोग हैं, सबका अपना-अपना तरीक़ा है जिस से कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है।
मयंक तिवारी जी कम शब्दों में दिल को छूने वाली बात कह देते हैं कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सरल और प्रभावी लिखना बखूबी सिखाते हैं ये। शिवेंद्र सिंह, जो ख़ुद को सनकी कहते है उनका लेखन अलग प्रकार का होता है जो दिल तक पहुँचता है। भावना अवस्थी, इनका शब्दकोश बड़ा क्लिष्ट है हमेशा जानकारी बढ़ाता है। अनन्य सिद्धराज, ये लड़का है तो छोटा पर लेखन बड़े-बड़ों को मात देने वाला है इसका। आशुतोष तिवारी, इनकी नज़्में बस बोलती हुई प्रतीत होती हैं। जय कुमार, कुमार साहब यथार्थ से परिचय करवा देते हैं। अपर्णा गुप्ता, इनकी रचनाएँ काफ़ी अलग होती हैं।हर्षिता पंचारिया, ये लिखती हैं तो बस लगता है कलम बोल उठेगी इनकी तारीफ़ में। अभिषेक मिश्रा, ये बस कमाल है। आदर्श, कम शब्दों में मोहब्बत, सियासत, अमीरी, ग़रीबी इतनी सहजता से कह जाता है जो हम 100 शब्दों में भी ना लिख पायें। दुर्गा मानेक,दोनों भाषाओं में लिखती हैं और बहुत बेहतर सीखने और सिखाने की कोशिश होती है। अनुभव बाजपेयी यानि कि चश्म साहब आपकी तो क्या ही बात करें मतलब उम्र कम और शब्दों का अनुभव इतना ज़्यादा, ख़ासकर आपके गद्य पढ़ के उम्मीद सी होती है हिंदी की उम्र लंबी है। हर्ष स्नेहांशु जी, ये भी कम शब्दों में ज़्यादा कह देते हैं, इनकी बालकनी सीरीज़ कमाल की है। स्वाति राय, ये लेखक नहीं मानती ख़ुद को इसे ये यक़ीन भी नहीं था कि ये लिख सकती है लेकिन अब लिखने लगी है। शिवम तिवारी, इनकी कलम धारदार है। त्रिपुरारी शर्मा जी कमाल के शायर हैं। अभिजीत साहू हमने लिखना इनसे ही सीखा है आज भी सीख रहे हैं इनकी वाह मिल जाए तो यक़ीन-सा हो जाता है कि अच्छा लिखा है। पीयूष मिश्रा, इनकी चर्चा की थी हमने पहले इनका लेखन अपना सा लगता है। अनिल आमेटा जी, बहुत गम्भीरता है इनकी कलम में। प्रतीक तिवारी, यथार्थ का समावेश होता है इनकी रचनाओं में। सतीश चंद्र, हर प्रकार की रचनाएं होती है इनकी। गरिमा सिंह, कलम से भक्ति इस से सीखी है मैंने। ऋतु ज़ोहम, सीधा और सच्चा लिखती है। मुकेश झाड़े, त्रिवेणी बहुत बढ़िया लिखते हैं ये। अनु छंगानी, भावनात्मक लेखन हैं इनका। साकेत गर्ग , इश्क़ सा है इनके लेखन से। स्वाति अग्रवाल, ये लिखती ज़रा कम है लेकिन गहराई होती है इनके शब्दों में। आरिफर रहमान, ये भी कम लिखते हैं लेकिन ठहराव है लेखन में। सीमा श्रीवास्तव, बस ज़िन्दगी की कैनवास के रंग बिखरा देती हैं। शिखा श्रीवास्तव, सुंदर लेखन और सहज भी। अभिषेक चौधरी, सच लिखते हैं और वो भी करारा।
ये बहुत ज़्यादा लम्बा हो जाएगा(आशा है माफ़ी मिल जाएगी) यहाँ पर भी ये लिस्ट कम्पलीट नहीं होती अभिलेख, निहारिका नीलम सिंह, उज्जवला परिहार, पूनम अर्चना सिंह,जयलक्ष्मी विनायक, पवन कुमार लाडिया, अनुपमा झा, रमनदीप सिंह, सबको पढ़ना अच्छा लगता है। एक प्रसून व्यास जी हैं जिनके लेखन से लगाव है। सुधांशु शेखर सर जीवन से जो सीखा है सिखा जाते हैं अपने शब्दों से। प्रवीण यादव, ये मुझ से ही हैं कई बार लगता है जैसे उनका लिखा मैंने लिखा हो, गद्य अच्छा लिखते हैं। कुछ लोग जो हास्य लिखते हैं उनमें राना स्वप्न सरकार,स्वास्तिक आनंद त्रिपाठी, उदित कुमार,साहिल परुथी, सौरभ सिंह ये सब पसन्द हैं।

सब अपने में यूनीक हैं पर कभी ख़ुद में कुछ यूनीक मिला हो जो आपने ख़ुद से खोज निकाला; लिखने के इतर।

अरे ये लाज़वाब सा प्रश्न पूछा आपने,धन्यवाद इसके लिए आपका। मैं ही उत्कृष्ट हूँ, जितने लोग हैं सब अपनी जगह अलग हैं। लेकिन किसी एक चीज़ की बात की जाए तो ये है कि हमें ख़ुद को समझा लेना बख़ूबी आता है मतलब ये कि जब भी नकारात्मकता घेर लेती है, बात चाहे जिस से भी कर लूं लेकिन आख़िर में ख़ुद की सुनती हूँ, ख़ुद ही बाहर भी निकल आती हूँ। दूसरी चीज़ ये है कि मैं हर इंसान में ख़ुद को पाती हूँ, अब हूँ तो भावनाओं के अधीन हर बार नहीं कर पाती लेकिन बहुधा यही होता है कि मैं सामने वाले की जगह ख़ुद को रख के सोचती हूँ। जैसे किसी ने अगर डांटा तो उसके पीछे क्या मंशा रही होगी उसकी, कोई चुप है अगर तो क्या वज़ह है कि चुप है, मतलब समझने की कोशिश हर बार होती है मेरी। सबसे अच्छी बात और आपके प्रश्न का एकदम सटीक जवाब तुकबन्दियाँ बड़ी कमाल करने लगी हूँ आजकल मज़ाक-मज़ाक में भले ही बेकार सा। ये यूनिकनेस मुझे भी नहीं पता थी।

बढ़िया है तुकबबन्दी बिठाते रहिए। कुछ बदलाव करना चाहें अपने लेखन में तो वो क्या होगा?

बदलाव तो एक सतत प्रक्रिया है चाहे वह जीवन में हो या लेखन में, दोनों ही बस सिखाते जाते हैं और हम सीख के बदलाव किए जाते हैं। निर्भर हम पर करता है कि इस बदलाव को हम कितना ज़रूरी या ग़ैर ज़रूरी समझते हैं। तो लेखन में बदलाव ये करना है कि हिंदी से जो लगाव है उसको प्रेम में बदल देना है इतना जानना है, ये प्रक्रिया पूरे जीवन चलेगी। मैं अभी शैशव अवस्था में हूँ लेखन के साहित्य को जाना नहीं है, भावनाओं से ज्ञान तक का सफ़र तय करना बाक़ी है। अभी बस महसूस जो चीज़े होती है और जैसे भी शब्द आते हैं लिख देती हूँ, इसे साहित्यिक बनाने का बदलाव करना है।

ये अच्छी बात है। आप लेखन को किस तरह से लेती हैं यानी आपके लिए लेखन कितना महत्वपूर्ण है?

शुरुआत में मुझे बस शौक़ था कोई ख़ुशी हो तो पन्नों से बाँट लो, कोई दर्द हो तो पन्नों से बाँट लो बस। जब आठवीं में थी तो एक शिक्षक महोदय ने सलाह दी डायरी लिखने की, और वो कुछ ऐसे की प्रत्येक दिन अच्छा क्या किया बुरा क्या किया फिर कुछ एक दिन ये चला। तब तक ये ख़ुद भी नहीं पता था कि लेखन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण है पर बाक़ी सबको वो दिखने लगा था, भैया था वो जिसने मुझे हिंदी पढ़ने की और लिखने की सलाह दी थी और मैंने मज़ाक उड़ा दिया था। एक वो समय था, अब ये एक समय है कि पहले लोग मुझे सलाह देते थे लिखो अब मुझे लड़ना पड़ता है कि लिखने दो। जीने के लिए चार वक़्त की रोटी शांतिपूर्ण कमरा और उसमें कलम और किताबें चाहिए बस अब क्योंकि अब इस स्याह में स्याही ढूंढ लिया है मैंने। बस पढ़ना है सीखना है, ख़ूब सीखना है और लिखते रहना है। मैं लेखिका नहीं हूँ अभी ख़ुद के लिए, ख़ुद के सुकून के लिए, ख़ुद को तलाशने के लिए और शांति के लिए लिखती हूँ। इसलिए लिखने से स्वार्थ जुड़ा है, लेखन है तो मैं हूँ, इतनी सी बात है बस कि क़त्ल करना बहुत आसान है मेरा, तुम कलम छीन लो बस मेरे हाथों से।

वाह ! अच्छा कोई ऐसी वस्तु जो आपको सबसे अधिक प्रिय हो उसकी एक तस्वीर और उसके कुछ पंक्तियाँ हो जाएँ।

कौन कहे सब छोड़ चलेगा
मौत थाम लेगी जब कर दो
जीवन में जो लिया, मरण में
ले चलना होगा उन सबको।

इस भंडार भरे में आकर
छूछे ही चल दोगे आखिर,
लेने लायक जो कुछ भी है
भली तरह ले ही लो तब तो।

जो कोरा कतवार बटोरा
किया यहाँ दुनिया में दिन-दिन,
जी जाओ, जाने की वेला
सब क्षय कर जाओ जो गिन-गिन।

आए हैं माटी के भू पर
बन-ठन लें सिंगार सजा कर,
राज वेश में चलो विहंसते
मृत्य पार के उस उत्सव को।

जीवन में जो लिया, मरण में
ले चलना होगा उन सबको।

क्या बात है ! अब चलते-चलते कुछ कहना चाहें आप सबसे।

कहने को अब भी शेष तो बहुत है जीवन के जैसे! इतना ही कि किसी को भी अपने हिसाब से ना आंके, उसका अपना किरदार है, उसकी अपनी कहानी। ज़िन्दगी से एक ही चीज़ सीखी है अब तक कि कुछ भी एक जैसा नहीं रहता है ना लोग, ना हालात यहाँ तक कि आपका अपना स्वभाव भी, इसलिए कोई भी वक़्त अगर सकून दे तो जी लीजिए, ये सोचकर कि दोबारा आए न आए। मैं चीज़ों से ऊब जाती हूँ और फिर बदलाव ख़ुद ही आ जाता है। सोचा था कि समभाव से सब अच्छा होता है, अब समझ आता है कि जैसे को तैसा होना चाहिए था।

Follow Ankita Shahi on YourQuote: https://www.yourquote.in/ankitashaahi

Now you too can write/perform your original content/record your music covers on YourQuote app available on Android/iOS. Start posting!

--

--